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गुरुवार, 8 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-27

पागल बाबा और हरी प्रसाद
      यहां आने से पहले मैं सुप्रसिद्ध बांसुरी वादकों में से एक, हरि प्रसाद की बांसुरी सुन रहा था। इससे बहुत सी यादें ताजा हो गई।
      संसार में अनेक प्रकार की बांसुरियां हैं। सबसे महत्‍वपूर्ण अरबी है और सबसे सुंदर है जापानी—ओर, और भी कई है। लेकिन भारत की छोटी सा बांस की बांसुरी की मधुरता की तुलना दुसरी कोई बांसुरी नहीं कर सकती। और बांसुरी वादक का जहां तक सवाल है तो उस पर तो हरि प्रसाद का पूर्ण अधिकार है। उन्‍होंने एक बार नहीं, कई बार मेरे सामने बांसुरी बजाईं है। जब कभी उनके भीतर पूरी तरह डूब कर, उच्‍चतम बांसुरी बजाने का भाव उठता तो मैं जहां कही भी होता वे वहां आ जाते—कभी-कभी तो हजारों मील का सफर तय करके मेरे पास पहुंचते, सिर्फ अकेले में घंटे भर मुझे जी भर कर अपनी बांसुरी सुनाने के लिए।
      मैने उनसे पूछा: हरि प्रसाद, आप अपनी बांसुरी कहीं भी बजा सकते हो। इतना लंबा सफर करने की क्‍या आवश्‍यकता है। और भारत में एक हजार मील पश्चिम के बीस हजार मील के बराबर है। भारतीय रेलगाड़ियाँ अभी भी दौड़ती नहीं,चलती है।
जापान में ट्रेन चार सौ मील प्रति घंटा की गति से चलती है। और भारत में तो चालीस मील प्रति घंटा की गति बहुत तेज है। और बसें और रिक्‍शे.....मेरे बेडरूम के केवल एक घंटा बांसुरी बजाने के लिए....मैंने उनसे पूछा क्‍यों।
      उन्‍होंने कहा; क्‍योंकि प्रशंसक तो मेरे हजारों है, लेकिन स्‍वरहीन स्‍वर को, नाद हीन नाद को कोई नहीं समझता। जब तक कि कोई स्‍वरहीन स्‍वर को समझे, बांसुरी की सही सरहना नहीं होती। इसलिए मैं आपके पास आता हूं, और आपके सामने एक घटा बांसुरी बजा कर मुझे जो आत्म पुष्टि होती है उसके कारण मैं कई महीनों तक नाना प्रकार के मूर्खों के सामने बजा सकता हूं, गवर्नर, मुख्‍यमंत्रियों, और सब प्रकार के तथा कथित बड़े लोगों के सामने। जब मैं दी मूर्खों से थक जाता हूं, बहुत परेशान हो जाता हूं। तो मैं दौड़ा हुआ सीधे आपके पास आ जाता हूं। इसलिए कृपा करके इस एक घंटे के समय से इनकार मत करना।
      मैंने कहा: ‘’ आपकी बांसुरी को, आपके गीत को सुनना बहुत ही आनंददायक है। बड़े सौभाग्य से ऐसा संगीत सुनने को मिलता है। विशेषत: इसलिए भी कि यह मुझे उस व्‍यक्‍ति की याद दिलाता है जिसने हमारा परिचय कराया था। क्या आपको उस व्‍यक्‍ति की याद है।
      हरि प्रसाद तो बिलकुल भूल गए थे कि किसने उनको मुझसे परिचित करवाया था। और मैं इसे समझ सकता हूं,...क्‍योंकि यह करीब चालीस साल पहले कि बात थी, मैं छोटा सा बच्‍चा था और वे नवयुवक थे। उन्‍होंने याद करने कि बहुत कोशिश की, लेकिन उन्हें याद नहीं आई। उन्‍होंने कहा: ‘’ माफ करना, ऐसा लगता है  कि मेरी याददाश्‍त ठीक से काम नहीं करती है। मुझे वह आदमी याद ही नहीं आ रहा जिसने मुझे आपसे परिचित करवाया था। अन्‍य बातों को मैं भूल जाऊँ यह तो ठीक है, लेकिन इस व्‍यक्‍ति की तो मुझे याद आनी चाहिए।‘’
      जब मैंने उनको उस आदमी की याद दिलाई तो उनकी आंखों में आंसू आ गए। आज में तुम लो्ंगो से उसी व्‍यक्‍ति की बात करना चाहता हूं।
      पागल बाबा उन अत्‍यंत असाधारण व्‍यक्‍तियों में से एक थे जिनके बारी में मैं चर्चा करूंगा। वे मग्‍गा बाबा की श्रेणी के थे। वे पागल बाबा के नाम से जाने जाते थे। वे सदा अचानक आंधी की तरह आते थे और उसी प्रकार अचानक गायब भी हो जाते थे।
      मैंने उन्‍हें नहीं खोजा था। उन्‍होंने मुझे खोजा था। मैं नदी में तैर रहा था जब वे वहां से गूजरें। उन्‍होंने मेरी और देखा, मैंने उनकी और देखा और वे नदी में कूद पड़े और हम दोनों एक साथ तैरते रहे। मुझे नहीं मालूम कि हम कब तक तैरते रहे, लेकिन में ‘’बस’’ कहने बालों में से नहीं था। वे उस समय भी माने हुए संत थे। मैंने उनको पहले भी देखा था, लेकिन इतने नजदीक से नहीं। मैंने उनको धार्मिक-सम्‍मेलन में भजन, परमात्‍मा के गीत गाते हुए देखा था। और उनके लिए मेरे ह्रदय में एक विशिष्‍ट भाव था, लेकिन इसको मैंने अपने तक ही रखा था। इसके बारे में मैंने एक शब्‍द भी नहीं कहा था। कुछ बातें ऐसी होती है, जिनको ह्रदय में रखना ही अच्‍छा होता है। वहां वे जल्‍दी बढ़ती हे, क्‍योंकि वह उपयुक्‍त जमीन है।
      उस समय वे काफी वृद्ध थे और में बारह  बरस से अधिक का नहीं था। इसलिए उनको पड़ा, अब रुके, मैं थक गया हूं। मैंने कहा: आप जब भी कहते में तैरना बंद कर देता। लेकिन जहां तक मेरा सवाल हे, मैं नदी में मछली की तरह हूं।
      हां, मेरे शहर में सब लोग मुझे इसी तरह जानते है। सुबह चार बजे से लेकर दस बजे तक लगातार छह घंटे और कोन तैरता। जब सब लोग सोए रहते, गहरी नींद मैं, तो हर रोज नदी पर पहुंच जाता था। सब लोग चले जाते तब भी मैं नदी पर ही होता। हर रोज दस बजे मेरी नानी आती तब मुझे पानी से बाहर निकलना पड़ता, क्‍योंकि वह मेरे स्‍कूल जाने का समय था। लेकिन स्‍कूल के तुरंत बाद मैं फिर नदी में घुस जाता।
      जब मैंने पहली बार हरमन हेस का उपन्‍यास ‘’सिद्धार्थ’’ पढ़ा,तो मुझे भरोसा न हुआ कि उसने नदी के बारे में जो लिखा है उसको तो मैं कई बार जान चुका हूं। और मुझे यह भी अच्‍छी तरह से मालूम था कि हेस केवल कल्‍पना कर रहा है। कल्‍पना अच्‍छी थी, क्‍योंकि वह बुद्ध बनने से पहले मर गया। वह ‘’ सिद्धार्थ’’ की रचना कर सका लेकिन स्‍वयं ‘’ सिद्धार्थ’’ न बन सका। लेकिन जब मैंने उसके द्वारा लिखा गया नदी का वर्णन पढ़ा—नदी के भाव, नदी के परिवर्तन, उसकी विभिन्‍न आंतरिक दशाएं, तो मेरा ह्रदय द्रवित हो उठा, पुलकित हो उठा। बजाय किसी और बात के उसके नदी के वर्णन से मैं बहुत ज्‍यादा प्रभावित हुआ। न जाने कब से मैं नदी से प्रेम करता था। ऐसा लगता था जैसे नदी के पानी में मेरा जन्‍म हुआ हो।
      नानी के गांव में भी या तो में झील में तैरता रहता या नदी में। नदी थोड़ी दूर थी, शायद दो मील की दूरी हो। इसलिए अधिकतर मुझे झील में ही जाना पड़ता। लेकिन कभी-कभी में नदी पर भी चला जाता, क्‍योंकि नदी और झील के गुण बिलकुल अलग-अलग है। झील तो एक प्रकार से मृत है। वह बहती नहीं, कहीं जाती नहीं, स्‍थिर रहती है। मृत्‍यु का यही अर्थ है। झील गतिशील नहीं है।
      नदी सदा आगे बढ़ती जाती है, किसी अज्ञात लक्ष्‍य की और दौड़ती है। शायद उसे लक्ष्‍य का पता भी नहीं होता, लेकिन जाने-अनजाने वह अपने लक्ष्‍य पर पहुंच ही जाती है। झील तो जहां है वहीं स्‍थिर रहती है। कहीं आती-जाती नहीं, रोज-रोज मरती जाती है। वह पुनरुज्जीवित नहीं होती। लेकिन नदी कितनी ही छोटी हो, वह सागर जितनी बड़ी है, क्‍योंकि देर-अबेर वह सागर ही बन जाती है।
      मुझे नदी की जीवंतता, उसकी गतिशीलता, उसकी निरंतर प्रवाहित होना,आगे बढते रहना बहुत पसंद है। उसके बहाव को देख कर मैं रोमांचित हो जाता हूं। इसलिए, हालांकि नदी दो मील दूर थी, फिर भी उसका आनंद  लेने के लिए मैं कभी-कभी वहां चला जाता था।   
      लेकिन मेरे पिता के शहर में नदी बहुत नजदीक थी। मेरी नानी के धर से केवल दो मिनट का रास्‍ता था। छत के ऊपर से उसका वैभव और सौंदर्य देखा जा सकता था। उसका आकर्षण अदभुत था। उसके निमंत्रण को अस्‍वीकार करना मुश्किल था।
      स्‍कूल से वापस आकर मैं जल्‍दी से नदी जाता। हां एक क्षण के लिए में नानी के घर पर रूक कर, अपनी किताबें वहां पटकता। वे बड़ी मुश्किल से मुझे चाय पीने के लिए मनाती और कहती, इतनी भी क्‍या जल्‍दी है। नदी कहीं भागी नहीं जाती। वह ट्रेन  तो नहीं है जो चल पड़ेगी। बार-बार वे यही कहती, याद रखो कि ट्रेन नहीं है जो छूट जाएगी। पहले अपनी चाय पी लो, फिर जाओ। और अपनी किताबों को इस तरह मत फेंको।
      मैं कुछ न कहता, क्योंकि इससे और देरी होती। इस पर नानी को बड़ी हैरानी होती। वे कहती, हमेशा तो तुम बहस करने के लिए तैयार रहते हो, लेकिन जब तुम्‍हें नदी पर जाना होता है तो मैं चाहे कितनी ही बेतुकी बात क्‍यों ना बोल दूँ, तुम ऐसे चुपचाप सुन जाते हो जैसे कि बड़े आज्ञाकारी बच्‍चे हो। नदी जाते समय तुम्‍हें क्या हो जाता है।
      मैंने कहां: नानी, आप मुझे जानती है। आपको अच्‍छी तरह से मालूम है कि मैं समय बरबाद नहीं करना चाहता। नदी मुझे बुला रही है। चाय पीते समय मैं उसकी लहरों की आवाज को सुन सकती हूं।
      गर्म चाय पीने से कई बार मैंने अपने होठों को जलाया है। मैं जल्‍दी में होता था और कप को खाली करना हाता था। चाय पीए बिना नानी मुझे जाने न देती।
      वे गुड़िया जैसी नहीं थी, मुझे टोकने का गुड़िया का अपनी खास ढंग है। वह हमेशा कहती है, जरा रुकिए। चाय बहुत गर्म है। शायद मेरी पुरानी आदत है। जब कप को अपने हाथ में लेता हूं तो उसे कहना पड़ता है, रुकिए, यह बहुत गरम है। मुझे मालूम है कि वह ठीक कह रही है।  इसलिए मैं तब तक इंतजार करता हूं जब तक वह आपत्‍ति न करें। इसके बाद मैं चाय पीती हूं। शायद यह मेरी पुरानी आदत अभी भी है—जल्‍दी-जल्‍दी चाय पीकर नदी की और भाग जाना।
      नानी को मालूम था कि मैं जल्‍दी से जल्‍दी नदी पर पहुंचना चाहता हूं। फिर भी वे कोशिश करती कि मैं कुछ खा लू। मैं उनसे कहता,सब कुछ मुझे दे दो। मैं अपने खीसे में  डाल लूगा और रास्‍ते में खा लुंगा। मुझे हमेशा काजू पसंद रहे है। खासकर नमकीन काजू और वर्षों तक मैं अपने खीसे काजुओं से भरता रहा हूं। उस समय मैं शर्ट्रस पहनता था। मुझे ट्राउजर्स बिलकुल पसंद नहीं थे। क्‍योंकि मेरे सब अध्‍यापक ट्राउजर्स, लंबी पैंट पहनते थे। और मुझे उनसे धृणा थी। तो लंबी पैंट का संबंध उनसे जुड़ गया होगा। इसलिए मैंने शर्ट्रस ही पहने।
      भारत में जलवायु के हिसाब से शार्ट्रस ट्राउजर्स से ज्‍यादा उचित है। मेरे शार्ट्रस के दोनों जेब काजुओं से भरे रहते थे। और तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा कि काजुओं के कारण अपने दर्जी से कहता था कि दो खीसे मेरी कमीज में लगा दो। मेरी कमीज में हमेशा दो जेब रहती थी। मेरी समझ में नहीं आता था कि कमीज में केवल एक जेब क्‍यों लगाई जाती है और पतलून या शर्ट्रस में भी एक ही क्‍यों नहीं होती। शर्ट में सिर्फ एक क्‍यों होती है। इसका कारण बहुत साफ नहीं था। लेकिन मुझे मालुम है। कमीज की जेब हमेशा बाई और लगाई जाती है। ताकि दायां हाथ आसानी से उसमें चीजें  डाल सके या निकाल सकें। और बेचारे जेब बांए हाथ के लिए किसी जेब की जरूरत नहीं होती। गरीब आदमी बेचारा जेब का क्‍या करेगा।
      बांया हाथ शरीर के दमित अंगों में से एक है। मैं जो कह रहा हूं उसको आजमा कर देखो तो तुम्‍हें मालूम हो जाएगा कि बायां हाथ भी उन सब कामों को कर सकता है जो दायां हाथ करता है। यहां तक कि लिख भी सकता है, शायद अधिक अच्‍छा लिख सकता हे। तीस चालीस साल की आदत के बाद, आरंभ में तो तुम्‍हे  बांए हाथ से काम करना मुश्‍किल लगेगा, क्‍योंकि बांए हाथ की उपेक्षा कि गई है। और उसे अशिक्षित रखा गया है।      
      बायां, हाथ तुम्‍हारे शरीर का सबसे महत्‍वपूर्ण अंग है, क्‍योंकि  यह तुम्‍हारे दिमाग के दांए भाग का प्रतिनिधित्‍व करता है। तुम्‍हारा बांया हाथ तुम्‍हारे दांए दिमाग से जुड़ा है और तुम्‍हारा दाया हाथ तुम्‍हारे बांए दिमाग से जुड़ा हुआ है। क्रास की तरह। दाया असल में बांया है और बांया असल में दाया है। बांए हाथ की उपेक्षा  करने का मतलब है कि तुम दांए दिमाग कि उपेक्षा कर रहे हो और दिमाग के दांए भाग में एकत्रित है वह सब कुछ जो अत्‍यंत मूल्यवान है—हीरे, पन्‍ने,माणिक, पुखराज, वह सब जो मूल्यवान है—सारे इंद्रधनुष, फूल, और तारे। दिमाग के दाएँ भाग में रहते है सब प्रवृतियां और अंतर्बोध। या यूं कहा जा सकता है कि दिमाग का दायां भाग स्‍त्रैण है। दाया हाथ तो पुरूष जैसा कठोर है।
      तुम लोगों को यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि जब मैंने लिखना आरंभ किया तो मैंने बांए हाथ से लिखता शुरू किया था। इसके लिए सब लोगों ने मेरा विरोध किया सिवाय मेरी नानी के। वे अकेली थीं जिन्होंने कहा, अगर वह बांए हाथ से लिखना चाहता है तो इसमे हर्ज क्‍या है। सवाल तो लिखने का है। इससे क्‍या फर्क पड़ता है कि वह किस हाथ का उपयोग करता है। वह बाएं हाथ से कलम को पकड़ता है और तुम दाएं हाथ से कलम को पकड़ते हो, इसमे समस्‍या क्‍या है। लेकिन किसी ने मुझे बांए हाथ को इस्तेमाल न करने दिया। और वे सब जगह तो मेरे साथ नहीं हो सकती थी। स्‍कूल में सब अध्‍यापक और सब विद्यार्थी  मेरे बांए हाथ के उपयोग के खिलाफ थे। दायां हाथ ठीक है और बांया गलत हे।
      अभी भी मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्‍यों। शरीर के बांए भाग को क्‍यों अस्‍वीकार किया जाता है। और इस प्रकार उसके उपयोग को क्‍यों सीमित रखा गया है। और क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि दस प्रतिशत लोग बांए हाथ से लिखना चाहते है। उन्‍होंने बांए हाथ से ही लिखना आरंभ किया था, लेकिन ऐसा करने से उनका रोका गया।
      मनुष्‍य के साथ घटी प्राचीनतम दुर्घटना यही है कि उसका आधा हिस्‍सा उसको उपलब्‍ध नहीं है। हमने अजीब ढंग का आदमी बना दिया है। यह उस बैलगाड़ी जैसा है जिसका एक ही चाक है। दूसरा चाक है, लेकिन वह अदृश्‍य है। उसका उपयोग बहुत कम करते है—अगर किया भी जाता है तो दिखाई  नहीं देता। यह गंदी बात है। मैंने आरंभ  से ही इसका विरोध किया। आपने अध्‍यापक और हेड मास्टर से पूछा कि आप मुझे बताइए कि मैं क्‍यों दाएं हाथ से ही लिखू। इसका कारण क्‍या है। इस पर उन्‍होंने अपने कंधे उचका दिए। मैंने कहा इस प्रकार कंधे उचकाने से तो काम नहीं चलेगा। आपको इसका उत्‍तर देना पड़ेगा। अगर में अपने कंधे उचकांऊ तो आपको यह स्‍वीकार न होगा। तो मैं क्‍यों स्‍वीकार करूं। आपको मुझे इसका कारण बताना ही पड़ेगा।
      लेकिन वे लोग न तो मुझे समझ सके, न वे मुझे समझा सके। इसलिए मुझे स्‍कूल के बोर्ड में भेजा गया। सच में वे मुझे अच्‍छे से समझते थे, जो कह रहा थे, मैं जो कह रहा था वह सीधा साफ़ था। अपने बांए हाथ से लिखने में क्‍या गलती है। अगर मैं अपने बांए हाथ से सही उत्‍तर लिखू तो क्‍या वह उत्‍तर गलत हो सकता है। कयोंकि वह बांए हाथ से लिखा गया है।   
      उन्‍होंने कहां: तुम तो पागल हो ही और हम सब को भी पागल बना दोगे। इसलिए तुम स्‍कूल क बोर्ड में जाकर ही अपना यह सवाल पूछो।
      स्‍कूल—बोर्ड था म्यूनिसिपैलिटी—कमेटी जो सारे स्‍कूलों का नियंत्रण करती थी। उस शहर में चार प्राइमरी स्‍कूल और दो हाई स्‍कूल थे—एक लड़कियों का और एक लड़कों का। कैसा शहर था जहां लड़के और लड़कियों को अलग-अलग रखा जाता था। प्राय: सभी विषयों के बारे में अंतिम निर्णय इसी बोर्ड लिया जाता था। इसलिए मुझे भी वहीं भेजा गया। बोर्ड के सदस्‍यों ने मेरी बात को ध्‍यान से सुना जैसे कि में खूनी हूं और वे मुझे फांसी पर लटकाने बाले न्‍यायाधीश है। मैंने उनसे कहा: इतनी गंभीरता की जरूरत नहीं है। आराम से मेरी बात सुनिए। मैं तो केवल यही पूछना चाहता हूं कि अगर मैं बांए हाथ से लिखता हूं तो इसमें गलत क्‍या है। उन्‍होंने एक दूसरे की और देखा। मेंने कहा इस तरह से काम नहीं चलेगा। आपको मुझे उत्‍तर देना होगा, मुझे टालना इतनी आसान नहीं है। आप अपनी उत्‍तर लिख कर दीजिए, क्‍योंकि मुझे आप पर कोई भरोसा नहीं है। आप जिस तरह एक दूसरे को देख रहे है। इससे आपकी चालबाजी और राजनीति झलक रही है। इसलिए अच्‍छा तो यही हे कि आप अपने उत्‍तर को लिख कर दें। कृपया लिख कर बताइए कि बांए हाथ से सही उत्‍तर लिखने में क्‍या गलती है।
      वे लोग तो मूर्तियों की तरह चुपचाप बैठे हुए थे। किसी ने भी मुझसे कुछ नहीं कहा। लिखने के लिए भी तैयार नहीं थे। उनहोंने केवल यहीं कहा: इस पर हमे सोचना पड़ेगा।
      मैंने कहा: जरूर सोचिए। मैं यहां पर खड़ा हूं। मेरे सामने सोचने से आपको कोन रोक रहा है। किसी प्रेम-संबंध की तरह क्‍या यह कोई निजी मामला है। और आप सब आदरणीय नागरिक है। कम से कम एक ही प्रेम-प्रसंग से छह आदमियों को कैसे संबंधित नहीं होना चाहिए। यह तो ग्रुप-सेक्‍स जैसा होगा।
      उन्‍होंने चिल्‍ला कर मुझसे कहा: चुप रहो, ऐसे शबद का प्रयोग मत करो।
      मैने कहा: मैं क्‍या करू, आपको उकसाने के लिए मुझे ऐसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। अन्‍यथा आप तो मूर्तियों की तरह बैठे रहेगें। कम से कम अब आपने कुछ कहा तो अब आप भलीभाँति सोचिए। इसमें मैं कोई अड़चन नहीं डालुगां। आपकी सहायता ही करूंगा।
      उन्‍होंने कहा: कृपा करके बहार जाओ। हम तुम्‍हारे सामने सोच नहीं सकते, क्‍योंकि तुम इसमें अवश्‍य दखल ड़ालोगे। हम तुम्‍हें जानते है और इस शहर का हर आदमी तुम्‍हें जानता है। अगर तुम नहीं जाओगे तो हम चले जाएंगे। मैने कहा: सज्‍जनता तो इसी में है कि पहले आप जाएं।  उनको मेरे सामने ही अपने  कमेटी रूम से बहार जाना पडा। निर्णय अगले दिन आया। अध्‍यापक सही है आपको दांए हाथ से लिखना चाहिए।
      इस प्रकार का झूठापन सब जगह प्रभावी है। मैं तो समझ भी नहीं सकता कि यह किस प्रकार की मूर्खता है। और ताकत ऐसे लोगों के पास है—दांए हाथ वाले पुरूष तान शा हों के पास। कवि शक्तिशाली नहीं है, न संगीतज्ञ.....
      अब इस व्‍यक्‍ति हरी प्रसाद चौरासिया को ही देखिए, कितनी सुंदर बांस की बांसुरी बजाते है। लेकिन उसका सारा जीवन गरीबी में ही बीता। वे पागल बाबा को याद न कर सके जिन्होंने उसका परिचय मुझसे कराया था यहाँ ऐसा कहना बेहतर होगा कि मेरा परिचय उनसे कराया था, क्योंकि उस समय मैं बच्‍चा था और उस समय हरी प्रसाद सुविख्‍यात बांसुरी बादक थे—जहां तक बांस की बांसुरी का सवाल है वे उसके जाने-माने अधिकारी थे।
      पागल बाबा ने मुझे और भी बांसुरी वादकों से परिचय करवाया था, खासकर पन्‍ना लाल घोष से। मैंने उनका बांसुरी वादन भी सुना, लेकिन हरी प्रसाद की तुलना में वे कुछ भी नहीं थे। पागल बाबा ने मुझे इन लोगो से क्‍यों परिचित  करवाया। वे स्वयं बहुत अच्‍छे बांसुरी बादक थे। लेकिन वे लोगो के सामने नहीं बजाते थे। हां, वे मुझ बच्‍चे के सामने बजाते थे या हरि प्रसाद या पन्ना लाल घोष के सामने बजाते थे। लेकिन उन्‍होंने हमसे वादा लिया था कि यह बात हम किसी को नहीं बताएँगे। वे अपनी बांसुरी को अपने झोले में छिपा कर रखते थे।
      अंतिम बार जब मैं उनसे मिला तो उन्‍होंने अपनी बांसुरी मुझे दी और कहा: अब दुबारा हम नहीं मिलेंगे—ऐसा नहीं की तुमसे मिलना नहीं चाहता, बल्‍कि इसलिए कि यह शरीर अब अधिक दिन तक नहीं चल सकता। उस समय वे लगभग नब्‍बे वर्ष  के होंगे। में तुम्‍हें यह बांसुरी अपने स्मृति चिन्‍ह की तरह दे रहा हूं। और मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं कि अगर तुम इसका अभ्‍यास करो तो तुम महान बांसुरी वादक बन जाओगे। मैने कहा: लेकिन मैं बड़ा बांसुरी बादक बनना भी नहीं चाहता। बांसुरी वादन का एक ही आयाम है। इससे मुझे पूर्णता का अनुभव नहीं हो सकता। वे मेरी बात को समझ गए। उन्‍होंने कहा: जैसी तुम्‍हारी मर्जी।   
      मैंने उनसे कई बार पूछा कि जब वे मेरे गांव आते थे तो सबसे पहले मुझसे ही क्‍यों संपर्क करते थे। उन्‍होने कहा: तुम पूछते हो, क्‍यों, अरे तुम्‍हें तो यह पुछना चाहिए कि मैं इस गांव में क्‍यों आता हूं। सिर्फ तुमसे मिलने के लिए ही यहाँ आता हूं। और किसी कारण से मैं नहीं आता। एक क्षण के लिए मैं चुप रह गया, कुछ न बोल सका। धन्‍यवाद भी नहीं।
      हिन्‍दी में अंग्रेजी के थे क्यू जैसा कोई शब्‍द नहीं है। इसके लिए धन्‍यवाद शब्‍द का प्रयोग किया जाता है। लेकिन धन्‍यवाद का वास्‍तविक अर्थ है: भगवान तुम्‍हारा कल्‍याण करें। अब एक बच्‍चा नब्‍बे साल के आदमी से यह कैसे कह सकता है कि भगवान आपका कल्‍याण करे। मैने कहा:: बाबा, मुझे मुश्‍किल में मत ड़़ालो। में आपको धन्‍यवाद भी नहीं दे सकता। उनके थे क्यू कहने के लिए मैंने उर्दू के शब्‍द शुक्रिया का प्रयोग करना पडा। शुक्रिया का अर्थ होता है आभार। और यह अँग्रेजी के थे क्यू के बहुत निकट है। मैने कहा: आपने मुझे यह बांसुरी दी है। यह मुझे सदा आपकी याद दिलाएगी, यह आपकी यादगार है, मैं इसको बजाने का अभ्‍यास भी करूंगा। शायद आप मेरे भविष्‍य को मुझसे अधिक जानते है। शायद यह बांसुरी वादन ही मेरा भविष्‍य है, लेकिन अभी तो मुझे इसमें कोई भविष्‍य दिखाई नहीं दे रहा।
      उन्‍होंने हंस कर कहा: ‘’ तुमसे बात करना बहुत मुश्किल है। बांसुरी अपने पास ही रखो और इसे बजाने की कोशिश करना। अगर कुछ हो गया तो ठीक है अगर कुछ नहीं हुआ तो इसको मेरी याद की तरह रखना।
      मैंने उसे बजाना शुरू कर दिया और मुझे बजाना बहुत अच्‍छा लगा। मैंने वर्षों तक बांसुरी बजाईं और में इसमें बहुत कुशल हो गया। मैं बांसुरी बजाता था और मेरा एक मित्र—उसको मित्र नहीं, परिचित ही कहना चाहिए—तबला बजाता था। हम दोनों को तैरने का बहुत शौक था, इसलिए हम दोनों की जान-पहचान हो गई।
      एक साल जब नदी में बाढ आई हुई थी और हम दोनों उसे पार करके दूसरे किनारे पर पहुंचने की कोशिश कर रहे थे। बरसात में नदी को पार करने में मुझे बड़ा मजा आता था। उस समय उस नदी का पाट बहुत बड़ा हो जाता था। और उसका प्रवाह इतनी तेज हो जाता था कि उसकी धारा हमें दो-तीन मील अपने साथ बहा ले जाती थी। उसको पार करने के लिए हमें तीन मील पीछे की और जाना पड़ता था और पार करके वापस आने के लिए फिर तीन मील जाना पड़ता था। अर्थात छह मील की यात्रा थी। और वह भी बरसात के मौसम में। लेकिन मुझे इसमें बहुत मजा आता था।
      यह लड़का—इसका नाम भी हरी था। भारत में हरी नाम बहुत प्रचलित है। हरी का अर्थ होता है, भगवान। लेकिन यह बड़ा अजीब नाम है। और किसी भाषा में भगवान के लिए हरि जैसा नाम नहीं है। क्‍योंकि इसका वास्‍तविक अर्थ है, चौर, भगवान-चौर। भगवान को चोर क्‍यों कहा जाता है। क्‍योंकि देर-अबेर वह तुम्हारे ह्रदय को चुरा लेता है....जल्‍दी चुरा लें तो और भी अच्‍छा है। उस लड़के का नाम हरी था।
      नदी में बाढ़ पूरे वेग पर थी। हम दोनों उसको पार करने की कोशिश कर रहे थे। उस समय वह कम से कम एक मील चौड़ी हो गई थी। पार करते हुए वह बीच में कहीं डूब गया। मैंने उसको खोजने की बहुत कोशिश की, लेकिन यह असंभव था। नदी की बाढ़ बहुत तेज थी। अगर वह डूब गया था तो उसको खोजना मुश्किल था। हां, नीचे की और कुछ दूरी पर उसका शरीर मिल सकता था।
      मैं जितने जोर से पुकार सकता था उतने जोर से उसे पुकारा, लेकिन नदी भयंकर शोर कर रही थी। मैं रोज उस नदी के पार जाता। उसे खोजने के लिए एक बच्चा जो भी कर सकता है वह मैंने किया। पुलिस ने कोशिश की, मछुआरों न भी कोशिश की, लेकिन उसका कोई निशान नहीं मिला। नदी उसे बहा कर जे गई होगी। उसकी याद में मैंने पागल बाबा की दी हुई बांसुरी को नदी में फेंक दिया।
      मैंने कहा: ‘’ मैं तो खुद को ही फेंक देना पसंद करता, लेकिन मुझे दूसरा काम करना है। मेरे लिए तो अपने सिवाय यही सबसे अधिक मूल्‍यवान चीज है, इसलिए में इसे फेंक देता हूं।  हरि के तबले की संगत के बिना अब मैं कभी बांसुरी नहीं बताऊंगा। अब मैं बांसुरी बजाने के बारे में सोच भी नहीं सकता। कृपया, इसको ले लें।‘’
      वह बहुत सुंदर बांसुरी थी। शायद बाबा के किसी भक्त ने उनके लिए खास तौर पर बनाई थी। उसने उस पर सुदंर नक्काशी की थी। पागल बाबा के बारे में मुझे बहुत कुछ कहना है, बहुत सी बातें बतानी है। इस लिए उनकी चर्चा बाद में करूंगा।
      समय क्‍या है।
      दस बज कर तेईस मिनट, ओशो।
      अच्‍छा, आज तो पागल बाबा की बात करन के लिए समय काफी नहीं है। इसलिए बाद में कभी उनकी चर्चा करेंगें। लेकिन जो लड़का, हरि मर गया। उसके बारे में कुछ कहना बाद में शायद भूल जाऊँ। कोई नहीं जानता कि वह मर गया था या घर से भाग गया था, क्‍योंकि उसका शव कभी नहीं मिला। मुझे लगता है कि वह मर गया, क्‍योंकि में उसके साथ तैर रहा था और अचानक नदी के बीचोंबीच मैंने उसको गायब होत देखा। मैंने चिल्‍ला कर उससे पूछा: ‘’ हरि, क्‍या बात है, लेकिन कोई उत्‍तर नहीं मिला।‘’
      मेरे लिए तो भारत भी मरा हुआ है। मुझे भारत जीवित मनुष्‍यता का अंश प्रतीत नहीं होता। वह तो मृत जमीन है। इतनी शताब्‍दियों से मृत है कि मृतक भी  यह भूल गए है कि वे मृतक है। वे इतने लंबे समय से मृत है कि इसके बारे में भी उनका याद दिलाने की जरूरत है। मैं यही कोशिश कर रहा हूं। लेकिन यह बहुत ही धन्‍यवाद-रहित काम है। किसी को याद दिलाना कि ‘’ जनाब, आप अपने को जीवित मत समझिए। आप तो कब के मर चुके है।‘’
      पिछले पच्‍चीस वर्षों से रात-दिन मैं निरंतर यही कर रहा हूं। यह देख कर बहुत ही दुःख होता है, बहुत पीड़ा होती है। जिस देश में बुद्ध, महावीर और नागार्जुन को जन्‍म दिया अब मर गया है।
--ओशो             पं हरीप्रसाद चौरासिया

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